Monday, September 24, 2018

लीगढ़ ज़िले में पिछले एक महीने में

लीगढ़ ज़िले में पिछले एक महीने में छह जघन्य हत्याएं हुई हैं. इनकी प्रमुख वजह लूट बताई जाती है और कुछ मामलों में आपसी रंजिश.
इन हत्याओं के बाद से प्रशासन पर खासा दबाव रहा है. जिन छह लोगों की हत्याएँ अलग-अलग मौक़ों पर हुईं उनमें से दो पुजारी थे जबकि एक दंपति उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के मौजूदा राज्यपाल कल्याण सिंह के दूर के रिश्तेदार हैं.
घटनाएं हुईं भी अलीगढ़ के अतरौली क्षेत्र के आस-पास की हैं जो भाजपा के दिग्गज नेता कल्याण सिंह का गढ़ रहा है. उनके बेटे राजवीर सिंह एटा लोकसभा से सांसद हैं और पोते संदीप सिंह कल्याण सिंह के पूर्व चुनाव क्षेत्र अतरौली से विधायक और योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री हैं.
अलीगढ़ पुलिस का दावा है कि इन हत्याओं के पीछे जिन आठ लोगों का हाथ है उनमें से "दो को मार दिया गया है, पांच हिरासत में हैं और एक फ़रार है".
परिवार के सदस्यों और स्थानीय लोगों से मिली जानकारी के मुताबिक़, 16 सितंबर की दोपहर को अलीगढ़ शहर से करीब आधा घंटा दूर भैंसपाड़ा बस्ती में दो युवक एक साथ खाना खा रहे थे.
मुस्तक़ीम और नौशाद रिश्ते से जीजा-साले थे और पास की एक दूकान में कढ़ाई के काम में हाथ बंटाते थे और कपड़े की दुकान में काम करते थे.
दोनों की आमदनी दो से तीन हज़ार रुपए महीना थी और ये लोग साइकिल से काम पर जाते थे.
नौशाद की माँ और मुस्तकीम की सास शाहीन रविवार की उस दोपहर को याद कर फूट-फूट कर रो पड़ीं.ढाई बजे होंगे जब मैं मज़दूरी कर घर वापस आई. बड़ी बेटी रो रही थी और उसने बताया पुलिस वाले घर आए थे और मेरे बेटे नौशाद को उठा ले गए. मुस्तक़ीम को भी मार-पीट कर ले गए".
उन्होंने आगे बताया, "सब लोगों ने हौसला बंधाया कि पुलिस उन्हें छोड़ देगी क्योंकि उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया है. कुछ लोग थाने भी गए तो उन्हें डांट कर भगा दिया गया".
मुस्तकीम की दादी रफीकन खुद को घटना की गवाह बताती हैं.
उनके मुताबिक़, "घर से नौशाद और मुस्तकीम को ले भी गए और बुरी तरह मारा-पीटा भी. फिर घसीटते हुए ले गए और हमारे अंगूठों के निशाना भी लिए उन्होंने कुछ कागज़ों पर".
पड़ोसियों और चश्मदीदों के मुताबिक़ रविवार दो बजे आस-पास इस छोटी सी बस्ती में "पुलिस वालों की रेड हुई थी".
घटना के गवाह असलम ख़ान ने बताया, "कुछ पुलिस वाले सादी वर्दी में थे और कुछ यूनिफॉर्म पहने हुए थे. मुस्तक़ीम और नौशाद को पीटते हुए घर से निकाला और गाड़ी में डालने लगे. मुस्तकीम ने भागने की कोशिश की तो उसे और बेरहमी से पीटा".
एक दूसरे पड़ोसी ताहिर ने कहा, "इनका परिवार करीब नौ महीने पहले इस बस्ती में आया था और दोनों बच्चे साइकिल से काम पर जाते थे, कढ़ाई का काम करने". शमत अली भी मुस्तकीम के पडोसी हैं. उन्होंने कहा, "रविवार को मैं मौजूद था जब पुलिस वाले इन दोनों को और मोहल्ले के सलमान और नफ़ीस को भी उठा कर ले गए. हैरानी ये थी कि मंगलवार को पुलिसवाले फिर आए ये बताने कि मुस्तकीम और नौशाद फ़रार हैं. हमने सोचा कि जब इतनी बुरी तरह से उन्हें रविवार को मारा-पीटा गया था तो वे फ़रार कैसे हो सकते थे और वो भी पुलिस वालों के पास से".
भैंसपाड़ा बस्ती में दर्जनों हिन्दू-मुस्लिम परिवार रहते हैं. बस्ती में भरे नाले का पानी रास्तों पर बह रहा है और संकरी गलियों में लोग रह रहे हैं.
कुछ हिन्दू महिलाओं से बात हुई तो उनमें से एक ने कहा, "लड़के तो ठीक ही लगते थे. मेरी समझ में ये नहीं आया कि गरीब लड़के जब साइकिल पर ही चलते थे तो मोटरसाइकिल चलानी और चोरी करना कब और कहाँ सीख ली".
दोनों मृतकों के परिवारवालों का ये भी आरोप है कि स्थानीय पुलिस ने "मुस्तकीम और नौशाद को उसी दिन जल्दी-जल्दी में दफ़ना भी दिया और दो महिलाओं के अलावा परिवार- रिश्तेदारों को कब्रिस्तान में फटकने भी नहीं दिया. साथ ही दफ़नाने के पहले होने वाली धार्मिक रस्मों को आधा-अधूरा छोड़ दिया".
हमने अलीगढ़ के एसएसपी अजय साहनी से पूछा कि "क्या मुस्तकीम और नौशाद को पुलिसवालों ने रविवार को उनके घर से उठाया था?"
जवाब मिला, "नहीं, पुलिस की एक टीम सिर्फ छानबीन के सिलसिले में वहां गई थी और उनकी तस्वीर ले कर लौट आई".
भैंसपाड़ा के चश्मीदों और पुलिस के बयान में फर्क साफ़ है.
हमने पूछा, "क्या पुलिस ने मुस्तकीम, नौशाद, सलमान और नफ़ीस को भैंसपाड़ा से नहीं पकड़ा था?".
बग़ल में बैठे अलीगढ़ के एसपी अतुल श्रीवास्तव का जवाब था, "नहीं, मुस्तकीम और नौशाद फ़रार थे जबकि दूसरों को कहीं और से गिरफ़्तार किया गया".
पुलिस का दावा है कि मुस्तकीम और नौशाद के परिवारों के "इतिहास की छानबीन की जा रही है. ये लोग नौ महीने पहले इस इलाके में किराए पर रहने आए थे.
उसके पहले ये लोग छर्रा इलाके में कई साल से रह रहे थे. इसके पहले का इतिहास ये अभी बता नहीं सके हैं".
उधर नौशाद की मां और मुस्तकीम की दादी, दोनों, का दावा है कि "15 साल पहले हमारे गरीब परिवार बिहार से यूपी के इस कोने में आए थे".
पुलिस का कहना है कि घायल अवस्था में अस्पताल ले जाते समय "नौशाद और मुस्तकीम ने हत्याओं में शामिल होने की बात क़ुबूल ली थी".
पूरे एनकाउंटर को न सिर्फ़ बाहर से मीडिया वालों ने बल्कि कुछ एक पुलिस वालों ने भी शायद अपने मोबाइल फोनों पर फिल्म किया लगता है.
क्या जिस समय नौशाद और मुस्तकीम 'गुनाह क़ुबूल रहे थे' उस समय किसी भी पुलिस वाले के हाथ-जेब में एक भी कैमरे वाला मोबाइल नहीं था?
20 सितंबर की शाम को राष्ट्रीय मीडिया के कुछ पत्रकारों ने अलीगढ़ के सरकारी अस्पताल के शवगृह में इन दोनों के शव देखने की बात पुलिस से कही थी.
उनके मुताबिक़, "दोनों युवकों में से एक की मां और दूसरे की बीवी को मीडिया वालों से दूर रखा गया था".
हालांकि अलीगढ़ पुलिस इन दावों को ख़ारिज करते हुए कहती है, "न तो हमने किसी को शवगृह में रोका और न ही मृतकों को दफ़नाते समय".
एक और अहम बात पर मृतकों के परिजनों और पुलिसवालों की थ्योरी मेल नहीं खाती.
परिवारवालों के मुताबिक़ मुस्तकीम की उम्र 22 साल और नौशाद की उमर 17 साल थी.
जबकि पुलिस के मुताबिक़ मुस्तकीम की उम्र 25 और नौशाद की उम्र 22 साल की थी.
मृतकों के परिवारवालों का आरोप है कि "घर में दबिश के समय पुलिस सभी कागज़-प्रमाण उठा ले गई".
उधर पुलिस का कहना है कि "इनके इतिहास और पहचान के ठोस प्रमाणों पर गहन जांच चल रही है".
आखिरकार, पुलिस ने इस बात पर इनकार नहीं किया है कि कुछ पत्रकारों को "बदमाशों के साथ जारी मुठभेड़ के बारे में बताया गया था क्योंकि मीडिया से भी पूछताछ शुरू हो गई थी".
मामले ने अब राजनीतिक मोड़ ले लिया है.
ज़िले में बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने प्रशासन पर 'फ़र्ज़ी एनकाउंटर' करने का आरोप लगाया है.
मृतक के परिवार और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रेस वार्ताओं के ज़रिए मामले की निष्पक्ष जांच और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप की मांग की है.
इस बीच ज़िले के तमाम 'गैर-राजनैतिक संगठनों' ने प्रशासन की प्रशंसा के पुल भी बांधे हैं.
वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर में हमरी मौजूदगी में कम से कम तीन ऐसे सगठनों से जुड़े लोगों ने आकर एसएसपी और एसपी का माल्यार्पण किया और पिछले महीने हुई छह हत्याओं के मामले को सुलझा लेने पर बधाई दी.
ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में पिछले एक वर्ष से जारी पुलिस एनकाउंटर के सिलसिलों की ये सबसे ताज़ी कड़ी है.
प्रदेश की बीजेपी सरकार का कहना है कि उसका अभियान अपराध को लेकर "ज़ीरो टॉलरेंस" का हिस्सा है.
पिछले करीब दो वर्षों से बनी प्रदेश सरकार के कार्यकाल में 1,000 से ज़्यादा पुलिस एनकाउंटर हो चुके हैं जिनमें मारे गए 'अपराधियों' की संख्या अब 67 हो चुकी है.

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