Sunday, October 14, 2018

मेजर जनरल सहित सेना के सात अफसरों को उम्रकैद , फर्जी मुठभेड़ में 5 युवाओं की हत्या का मामला

ई दिल्ली: मेजर जनरल एके लाल (   ) सहित सात सैन्यकर्मियों को आर्मी कोर्ट(   18 फरवरी 1994 में एक चाय बागान के एक्जीक्यूटिव की हत्या की आशंका पर सेना ने नौ युवाओं को तिनसुकिया जिले से पकड़ा था. इस मामले में बाद में सिर्फ चार युवा ही छोड़े गए थे, बाकी लापता चल रहे थे. जिस पर पूर्व मंत्री और बीजेपी नेता जगदीश भुयन ने हाई कोर्ट के सामने याचिका के जरिए इस मामले को उठाया था. उस वक्त सैन्यकर्मियों ने फर्जी एनकाउंटर में पांच युवाओं को मार गिराते हुए उन्हें उल्फा उग्रवादी करार दिया था. जगदीश भुयान ने गुवाहाटी हाई कोर्ट में 22 फरवरी को उसी वर्ष याचिका दायकर कर गायब युवाओं के बारे में जानकारी मांगी. हाई कोर्ट ने भारतीय सेना को आल असम स्टूडेंट्स यूनियन के सभी नेताओं को  नजदीकी पुलिस थाने में पेश करने का हुक्म दिया. जिस परसेना ने धौला पुलिस स्टेशन पर पांच युवाओं का शव पेश किया. जिसके बाद सैन्य कर्मियों का 16 जुलाई से कोर्ट मार्शल शुरू हुआ और 27 जुलाई को निर्णय कर फैसला सुरक्षित रख लिया गया. सजा की घोषणा शनिवार को को हुई. यह जानकारी सेना के सूत्रों ने रविवार को दी. भुयन ने कहा-इस फैसले से अपने न्यायतंत्र, लोकतंत्र और सेना में अनुशासन और निष्पक्षता में भरोसा और मजबूत हुआ है. ) ने 24 साल पुराने पांच युवाओं के फर्जी एनकाउंटर मामले(      ) में उम्रकैद की सजा सुनाई है. उम्रकैद की सजा पाने वालों में मेजर जनरल एके लाल, कर्नल थॉमस मैथ्यू, आरएस सिबिरेन, दिलीप सिंह, कैप्टन जगदेव सिंह, नायक अलबिंदर सिंह और नाइक शिवेंद्र सिंह शामिल हैं.दरअसल, असम के तिनसुकिया जिले में 1994 में यह एनकांटर हुआ था. जिसमें सभी आरोपी सेना के अफसरों का कोर्ट मार्शल हुआ.नई दिल्ली: तेल के दामों में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी  से जहां जनमानस प्रभावित है, वहीं पर अब सरकार ने भी इसे गंभीरता से देखने की कोशिश की है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज सोमवार को तेल कंपनियों के प्रमुखों से मिलने वाले हैं. माना जा रहा है कि इस मीटिंग में तेल की कीमतों पर विचार-वि कोलकाता में पेट्रोल 84.54 रुपये प्रति लीटर हो गया और डीजल 77.23 रुपये प्रति लीटर. मुंबई में रविवार को पेट्रोल की कीमत बढ़कर 88.18 रुपये प्रति लीटर हो गई और डीजल 79.02 रुपये प्रति लीटर बिका. चेन्नई में पेट्रोल का भाव 85.99 रुपये प्रति लीटर था और डीजल 79.71 रुपये प्रति लीटर.आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तेल और गैस क्षेत्र की प्रमुख वैश्विक और भारतीय कंपनियों के प्रमुखों से मिलकर तेल बाजार के हालात की जानकारी लेंगे क्योंकि ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध चार नवंबर से लागू होने जा रहा है. पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर  वित्त मंत्री अरुण जेटली बीते दिनों विपक्ष पर निशाना साध चुके हैं. जमकर निशाना साधा है. उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट लिखकर विपक्ष को आड़े हाथों लिया. गैर-भाजपा शासित राज्यों के पेट्रोल-डीजल पर कर राहत देने से इनकार के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली ने  कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनके ‘असंतुष्ट सहयोगियों’ की मंशा पर सवाल उठाया. जेटली ने कहा कि जब आम आदमी को राहत देने की बात आती है तो लगता है राहुल गांधी और उनके सहयोगी दल केवल ट्वीट करने और टेलीविजन ‘बाइट’ देने के लिए ही प्रतिबद्ध हैं. जेटली ने फेसबुक पर ‘तेल की कीमतें और विपक्ष का पाखंड’ शीर्षक से एक लेख लिखा है. केन्द्र सरकार के पेट्रोल-डीजल के दाम में 2.50 रुपये प्रति लीटर कटौती को ‘खराब आर्थिक प्रबंधन’ बताने वाले विपक्ष की आलोचना करते हुये जेटली ने कहा कि यह उसके (विपक्ष के) पहले के रुख के ऊलट है. उन्होंने कहा कि जब तेल की कीमतें बढ़ती हैं तो राज्यों को अतिरिक्त कर राजस्व प्राप्त होता है क्योंकि राज्यों में कर मूल्यानुसार लिया जाता है. 

उन्होंने कहा, ‘‘अब ऐसी स्थिति है, जहां कई गैर-भाजपा और गैर-राजग शासित राज्यों ने कर में कटौती कर ग्राहकों को लाभ नहीं पहुंचाया है. लोग इसका क्या निष्कर्ष निकालेंगे?’’ जेटली ने कहा, ‘‘क्या राहुल गांधी और उनके अनिच्छुक सहयोगी जब जनता को राहत देने की बात आती है तो केवल टीवी पर बयान देने और ट्वीट करने के लिए प्रतिबद्ध हैं?’’ उन्होंने कहा कि कच्चे तेल की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय कीमतों की चुनौती काफी गंभीर है और विपक्ष के कुछ नेताओं के बयानों या ट्वीटों से इसका समाधान नहीं हो सकता है. वित्त मंत्री जेटली ने कहा, ‘‘गैर-भाजपा शासित राज्यों को जनता यह स्पष्ट बताना चाहिए कि 2017 और 2018 दोनों समय में उन्होंने जनता को किसी भी तरह की राहत देने से मना कर दिया था, जबकि उनका राजस्व संग्रह ऊंचा था. उन्हें जनता से इसे छिपाना नहीं चाहिए. वे ट्वीट करते हैं और टीवी पर बयान देते हैं लेकिन जब कदम उठाने की बारी आती है तो वह नजरें फेर लेते हैं.’’
मर्श कर जनता को राहत देने वाले फैसले लिए जा सकते हैं. पेट्रोल और डीजल की कीमतों में रविवार को भी वृद्धि जारी रही. सूत्र बता रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को तेल कंपनियों के प्रमुखों से मिलकर ऊर्जा के वैश्विक परिदृश्य का जायजा लेने वाले हैं. तेल विपणन कंपनियों ने रविवार को फिर तेल के दाम में बढ़ोतरी की.देश की राजधानी दिल्ली में पेट्रोल 82.72 रुपये प्रति लीटर हो गया. वहीं, डीजल 75.38 रुपये प्रति लीटर बिका.

Monday, October 8, 2018

क्यों आपको बहुत विनम्र नहीं होना चाहिए?

हर समाज और संस्कृति में ये शब्द विलेन माने जाते हैं. हम सब को बचपन से ही विनम्र होने की सीख दी जाती है.
अंग्रेज़ लेखिका जेन ऑस्टेन ने तो इस पर बाक़ायदा उपन्यास लिखा था-प्राइड ऐंड प्रेजुडिस. इसके ज़मींदार किरदार मिस्टर डार्सी को अपनी प्रेमिका एलिज़ाबेथ बेनेट का प्यार हासिल करने के लिए अपने ग़ुरूर की क़ुर्बानी देनी पड़ी थी.
मगर, वक़्त बदल रहा है. मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अभिमान करना उतनी भी बुरी बात नहीं जितनी सदियों से बताई जाती रही है. पिछले कुछ बरसों में हुए रिसर्च बताते हैं कि इंसान के विकास में अभिमान का अहम रोल रहा है. ये ख़ूबी इंसान में यूं ही नहीं आ गई. इसका मक़सद है.
तभी तो, आप पूरब से पश्चिम हो या बच्चों से बुज़ुर्ग तक- अभिमान की झलक देख पाते हैं.
ग़ुरूर के संकेत तो आप को पता ही हैं. सीधे अकड़ कर खड़े होना, बांहें फैला कर बातें करना, हमेशा सिर ऊंचा रखना.
ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक जेसिका ट्रेसी ने इस बारे में किताब लिखी है- 'प्राइड:द सीक्रेट ऑफ़ सक्सेस'. वो कहती हैं कि "अकड़ वाली इस भाव-भंगिमा को इंसान ने सदियों की विकास यात्रा से गुज़र कर हासिल किया है. ये यूं ही नहीं आई है."
जब हम अपनी किसी उपलब्धि पर गर्व करते हैं, तो इसके सामाजिक फ़ायदे भी होते हैं.
कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी की लेडा कॉस्माइड्स कहती हैं "जब इंसान शिकार कर के बसर करता था, तो गर्व करने का मक़सद ये संकेत देना होता था कि आप की बेहतरी सब के हित में है."
लेडा की रिसर्च में पता चला है कि हम तब ग़ुरूर महसूस करते हैं, जब हम कोई मुश्किल काम निपटाते हैं या फिर हमारे पास कोई एकदम अलहदा सी ख़ूबी होती है. यानी अगर आप किसी ख़ास हुनर को हासिल करने के लिए मशक़्क़त करते हैं, तो आपको अभिमान कर के ये संकेत देना होता है कि आप ने इसके लिए उनसे ज़्यादा मेहनत की है. इसका उन्हें सम्मान करना चाहिए.
कनाडा की मॉन्ट्रियल यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक डेनियल स्नाइसर कहते हैं कि, "ग़ुरूर के ज़रिए आप अपनी कामयाबी की नुमाइश करते हैं. वरना किसी को कैसे पता चलेगा कि आप की कामयाबी है क्या. मुझे आपकी अहमियत का एहसास इसी तरह से होता है."में इस पर एक बड़ी रिसर्च छपी थी. इसे लेडा कॉस्माइड्स और डेनियल स्नाइसर ने दूसरे मनोवैज्ञानिकों के साथ मिलकर किया था. इसमें अमरीका से लेकर जापान तक 16 देशों के लोगों पर तजुर्बे किए गए थे.
लोगों से पूछा गया था कि वो दूसरों की कौन-सी ख़ूबियां पसंद करते हैं और किन गुणों को वो अपने अंदर देखना चाहेंगे.
रिसर्च में पता चला कि जो लोग ग़ुरूर को अच्छा मानते थे, वो ये भी मानते थे कि इससे उन्हें दूसरों की तारीफ़ हासिल होगी.
अक्सर हम जिस बात पर अभिमान करते हैं, वो इस उम्मीद में करते हैं कि वो दूसरों की नज़र में अच्छा होगा. फिर वो कोई काम हो या हुनर हो.
अभिमान को अगर पैमानों पर कसें, तो हर काम से पहले हमारा ज़हन ये अटकल लगाता है कि उसकी दूसरे कितनी तारीफ़ करेंगे.
इस रिसर्च पर ये कह कर सवाल उठाए गए कि ये तो औद्योगिक और विकसित देशों का हिसाब-किताब है. जहां पर लोगों की मीडिया और संवाद के दूसरे संसाधनों तक ज़्यादा पहुंच होती है.
इसके बाद रिसर्चरों ने दक्षिण अमरीका, अफ्रीका और एशिया के 567 लोगों से यही सवाल पूछा कि वो दूसरों के किस गुण को पसंद करते हैं और कौन-सी ख़ूबियां वो अपने अंदर लाना चाहेंगे.
लोगों के जो जवाब मिले उसके संकेत साफ़ थे. वो चाहते थे कि वो देखने में मज़बूत हों, अच्छे क़िस्सागो हों, अपनी हिफ़ाज़त कर सकें. ऐसे गुणों की मांग भी ख़ूब दिखी और इनकी तारीफ़ भी हुई.
डेनियल स्नाइसर मानते हैं कि संकेत साफ़ हैं. अभिमान की हमारे समाज में ख़ास अहमियत है.
अमरीका की इलिनॉय यूनिवर्सिटी के जोई चेंग कहते हैं कि हमें ये तो हमेशा पता था कि ग़ुरूर से हमें कामयाबी के शिखर पर पहुंचने में मदद मिलती है. मगर ये मदद कितनी होती है, इसका पता नहीं था.
बड़ा सवाल ये है कि अगर हमारी तरक़्क़ी में अभिमान का इतना अहम रोल है तो इसके प्रति सोच इतनी नकारात्मक क्यों है?
लेडा कॉस्माइड और डेनियल स्नाइसर इसका जवाब देते हैं. वो कहते हैं कि "अपनी कामयाबी पर अभिमान करना तो ठीक, लेकिन कुछ लोग अहंकारी हो जाते हैं. ये ठीक नहीं है. जब आप अपनी कामयाबी को ज़्यादा समझते हैं. मगर दूसरों की नज़र में वो सफलता उतनी अहम नहीं होती. टकराव तभी शुरू होता है."
"आप कहते हैं कि मैंने फलां कामयाबी हासिल की. मेरा एहतराम करो. सामने वाला कहता है कि ठीक है कि तुमने वो काम किया. अच्छी बात है. मगर इस बात के लिए तुम्हें सलाम ठोकने का मेरा जी नहीं करता."
जेसिका ट्रेसी कहती हैं कि हमें ख़ुद पर गर्व करने और अहंकार करने में फ़र्क़ करना आना चाहिए. अपनी कामयाबी पर आप ख़ुश तो हों, मगर, दूसरे अगर उस सफ़लता को उस नज़रिए से नहीं देखते, तो आप उन पर दबाव न बनाएं. क्योंकि दिक़्क़त यहीं से शुरू होती है.
आत्ममुग्ध लोग अक्सर इन बारीक़ फ़र्क़ की सीमा पार कर जाते हैं. जो लोग अभिमान और अहंकार के इस फ़ासले को समझते हैं. वो बेहतर इंसान बन पाते हैं. उनके संबंध भी दूसरे लोगों से बेहतर होते हैं.
जोई चेंग और जेसिका ट्रेसी ने इस बारे में खिलाड़ियों पर रिसर्च की तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए.
पता चला कि जो खिलाड़ी आत्मविश्वास से भरपूर होते हैं, अपने हुनर पर अभिमान करते हैं, वो ज़्यादा कामयाब होते हैं. उनका सम्मान भी ज़्यादा होता है.
यानी अभिमान करने में कोई हर्ज़ नहीं. शर्त सिर्फ़ एक है. अपनी सफलता और अपने हुनर को ख़ुद से बढ़-चढ़कर न आंकें, न हांकें.
रेदुअन फ़ैद फ़्रांस के एक ऐसे अपराधी हैं जिन्हें एक नाक़ाम लूट की कोशिश में 25 साल की सज़ा मिली थी.
जब एक जुलाई को वो जेल से भागे तो फ़्रांस के लोग एक अपराधी के भागने का जश्न मनाते नज़र आए.
अभिनेत्री बिएट्रिस डेल ने तो अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर लिखा, "पूरा फ़्रांस आपके साथ है. मैं डांस करके घंटों तक इसका जश्न मनाऊंगी."रांस के लोगों में गैंगस्टर्स को लेकर ख़ासा रोमांच रहता है. ख़ासकर उन्हें लेकर जो जेल से भाग निकलते हैं.
जिन गैंगस्टर्स के पास इस तरह के कई क़िस्से हों और वो उन कहानियों पर अपनी क़िताब लिख दें तो फिर कहना ही क्या. वो टीवी सेलेब्रिटी बन जाते हैं.
रेदुअन फ़ैद की जिंदगी में ये सारे रोमांच हैं. उनकी ज़िंदगी में अतिश्योक्ति भरी घटनाएं भी हैं और बदलाव के क़िस्से भी. यही कारण हैं फ़्रांस के लोग उनके लिए भावनाएं रखते हैं.
ऐसा नहीं है कि फ़्रांस के लोग ऐसे अपराधियों के लिए भावनाएं रखते हैं जिन पर हिंसा के मामले कम हों. मसलन फ़ैद ने एक लूट की वारदात को अंजाम दिया था तो उसमें एक शख़्स बुरी तरह जल गया था.
साल 2010 के लूट के मामले में भी एक पुलिसवाले की मौत हो गई थी. हालांकि, ये मौत फ़ैद के हाथों नहीं बल्कि उन्हीं के गैंग के एक दूसरे शख़्स के हाथों हुई थी.
फ़ैद अकेले नहीं है. जैक्यूज़ मसरिन, टेनी ज़ाम्पा और फ़्रांस्वा ले बेल्गे भी लोगों के बीच काफ़ी मशहूर रहे. ये लोग ना सिर्फ़ बैंक लुटेरे रहे बल्कि क़ातिल भी रहे.
इस आकर्षण की जड़ें शायद फ़्रांस की क्रांति से शुरू होती हैं. इस क्रांति ने अमीरों की जेब किसी भी तरीक़े से ख़ाली करने वाले कामों को स्वीकार्यता दी थी.
रेदुअन फ़ैद ऐसे पहले गैंगस्टर नहीं हैं जिन्होंने ख़ुद की छवि रॉबिनहुड जैसी बनाई है.
फ़ैद 'ना कोई ज़ख़्मी, ना कोई घायल' जैसे वाक्य को अपना आधार सूत्र बताते थे. अपने संस्मरण में वह लिखते हैं, ''अगर कोई ज़ख़्मी नहीं होता है तो समझिए आप अपना काम सही तरीक़े से कर रहे हैं.''
फ़ैद ने उन मनोवैज्ञानिक बातों का भी ज़िक्र किया है जो उन्हें ऐसे कामों को अंजाम देने के लिए प्रेरित करती थीं. फ्रांस के लोगों को इस तरह से आत्मविश्लेषण करना पसंद है.
उन्होंने लिखा है, "आप एड्रिनलिन के लिए बेताब रहते हैं. आपके शरीर को इसकी ड्रग की तरह ज़रूरत होती है. आप ऐसे काम पैसे के लिए नहीं कर रहे होते."
मगर इस आकर्षण के पीछे एक आसान सी वजह है और फ़ैद भी इससे परिचित हैं- सिनेमा के प्रति दीवानगी.
फ्रांस में गैंगस्टर वाली फ़िल्में बनाने की परंपरा रही है. कई सारी फ़िल्में हैं जो गैंगस्टर्स वाले प्लॉट पर बनी हैं या फिर असली गैंगस्टर्स की ज़िंदगी पर आधारित हैं.
इन फ़िल्मों के हीरो हिंसक तो होते हैं मगर वे रोमांटिक भी होते हैं और कुछ ऐसे कारणों से अपराध की दुनिया में चले जाते हैं जिन पर उनका वश नहीं होता.
रेदुअन फ़ैद पर हॉलिवुड का ज़्यादा असर रहा था और यह असर बेहद अहमियत रखता था. साल 1995 में पहली वारदात के दौरान उन्होंने और उनके गैंग के सदस्यों ने पूर्व प्रधानमंत्री रेमंड बार के चेहरे वाले मास्क पहने हुए थे
फ़ैद ने हीट फ़िल्म डीवीडी पर 100 बार देखी थी और सीखा था कि हथियारबंद कैश वाली गाड़ी पर कैसे हमला किया जा सकता है.
ला मोंद अख़बार में उनकी साइकोलॉजिकल रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है, "डकैती ऐसे डाली गई मानो वो किसी फ़िल्म का असली सीन हो. वह अपने स्क्रीनप्ले के हिसाब से अभिनय कर रहे थे."
और फ्रांस के लोग तो वैसे भी अच्छी फ़िल्मों को पसंद करने के लिए जाने जाते हैं.

Monday, October 1, 2018

साउथ अफ़्रीका में क्या कर रही है गांधी की पांचवीं पीढ़ी?

आज मोहनदास करमचन्द गांधी की 150वीं जयंती है. वो महात्मा बने, प्यार से बापू भी कहलाये और उन्हें अंत में राष्ट्रपिता होने का सम्मान भी दिया गया.
गांधी अहिंसा और सत्याग्रह के पैग़ंबर थे. अंग्रेज़ी राज को घुटने टिकाने वाले उनके इस मंत्र का जन्म साउथअफ़्रीका में हुआ था.
आज भारत में शायद कम लोगों को इस बात का अंदाज़ा होगा कि साउथ अफ़्रीका में, जहाँ गांधी ने अपनी जवानी के 21 साल गुज़ारे, उनकी विरासत बची है या नहीं. उनका नाम यहाँ लिया जाता है या नहीं?
कुछ समय पहले हम यही जानने के लिए भारत से यहाँ आये.
डरबन और जोहानसबर्ग जैसे बड़े शहरों में गांधी को भुलाना आसान नहीं है. यहाँ के कुछ चौराहों और बड़ी सड़कों पर गांधी का नाम जुड़ा है. उनकी प्रतिमाएं लगी हैं और उनके नाम पर संग्रहालय बने हैं जहाँ इस देश में गुज़रे समय को क़ैद कर दिया गया है.
गांधी 1893 में साउथ अफ्रीका आये और 1914 में हमेशा के लिए भारत लौट आए.
शायद इस बात पर इतिहासकारों की सहमति हो कि इस देश में गांधी जी की सबसे अहम विरासत डरबन के फ़ीनिक्स सेटलमेंट में है जो भारतीय मूल के लोगों की एक बड़ी बस्ती है.
फ़ीनिक्स सेटलमेंट में गांधी ने 1904 में 100 एकड़ ज़मीन पर एक आश्रम शुरू किया था जहाँ, उनकी पोती इला गांधी के अनुसार, गांधी जी की शख़्सियत में भारी परिवर्तन आने लगा.
सत्याग्रह के आइडिया से लेकर सामूहिक रिहाइश, अपना काम खुद करने की सलाह हो और पर्यावरण संबंधी क़दम (जैसे मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल और जल संरक्षण) जैसे विचार फ़ीनिक्स सेटलमेंट के गांधी आश्रम में जन्मे और पनपे.
गांधी इस देश में एक बैरिस्टर की हैसियत से सूट और टाई में आये थे. उनके क़रीबी दोस्तों में गोरी नस्ल और भारतीय मूल के लोग अधिक थे.
कहा जाता है कि आश्रम में बसने से पहले उनका लाइफ़ स्टाइल अंग्रेज़ों जैसा था. खाना वो काँटा छुरी से खाते थे.
वो काली नस्ल की स्थानीय आबादी से दूर रहते थे. इसी कारण उनके कुछ आलोचक उन्हें रेसिस्ट भी कहते हैं.
लेकिन 78 वर्षीया उनकी पोती इला गांधी के अनुसार लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी साउथ अफ़्रीक़ा जब आये थे तो उनकी उम्र केवल 24 वर्ष थी.
इंग्लैंड में वकालत की पढ़ाई तो कर ली थी लेकिन व्यावहारिक जीवन में पूरी तरह से क़दम नहीं रखा था.
इला गांधी का जन्म इसी आश्रम में 1940 में हुआ था और इनका बचपन यहीं गुज़रा. तेज़ बारिश के बावजूद वो खुद गाड़ी चलाकर हमसे मिलने आयी थीं.
हमने गांधी के ख़िलाफ़ नस्ली भेदभाव के इलज़ाम के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, "बापू के उस युवा दौर के एक दो बयान को लोगों ने कॉन्टेक्स्ट से हटाकर देखा जिससे ये ग़लतफ़हमी हुई कि उनके विचार नस्ली भेदभाव वाले हैं."
अपनी बात ख़त्म करने के तुरंत बाद हमें वो आश्रम के उस कमरे में ले गयीं जो एक ज़माने में परिवार का रसोई घर होता था. लेकिन अब ये पूरा घर एक संग्रहालय है.
उन्होंने दीवार पर लगे गांधी जी के कुछ बयानों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, "ये देखिये, इस बयान को लेकर बापू को रेसिस्ट समझा गया. लेकिन इनके साथ एक-दो और बयान पर नज़र डालिये जिससे लगेगा कि वो नस्लपरस्त बिलकुल नहीं थे"
इला गांधी महात्मा गांधी के चार बेटों में से दूसरे बेटे मणिलाल गांधी की बेटी हैं.
वो आज एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और गांधी की एक ज़बर्दस्त शिष्या भी. वो एक रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और पूर्व सांसद भी.
इला गांधी ने, जो सात साल की उम्र में बापू की गोद में खेल चुकी हैं, गांधी के शांति मिशन का चिराग़ साउत अफ़्रीका में अकेले ज़िंदा रखा हुआ है.
अपनी मृत्यु से पहले उनकी बड़ी बहन सीता धुपेलिया गांधी के विचारों का प्रचार-प्रसार किया करती थीं. उनकी बेटी कीर्ति मेनन और बेटे सतीश गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी हैं.
हमारी मुलाक़ात कीर्ति मेनन से हुई जिन्होंने भारत में बढ़ती हिंसा और विभाजित होते समाज पर दुःख प्रकट किया.
गांधी की स्थायी विरासत में शामिल है उनके परिवार की नयी पीढ़ी. हमारी मुलाकात गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी से भी हुई.
ये साउथ अफ़्रीक़ा के डरबन, केप टाउन और जोहानसबर्ग जैसे शहरों में आबाद हैं. उनमें से तीन युवाओं से हमारी मुलाक़ात डरबन में कीर्ति मेनन के घर हुई.
इनका ज़िक्र स्कूल पाठ्य पुस्तकों में नहीं मिलेगा. इनकी तस्वीरें शायद आपने नहीं देखी होंगी क्योंकि ये मीडिया की चमक-दमक से कोसों दूर रहते हैं.
ये साधारण जीवन बिता रहे हैं और अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट नज़र आते हैं.
तीनों में कुछ बातें समान हैं: वो आत्म विश्वास से भरे हैं. बहुत अच्छा बोलते हैं. गांधी परिवार की संतान होने के बावजूद अपनी विरासत का ग़लत इस्तेमाल करने की कोशिश करते नहीं दिखते और तो और साफ़ सटीक बातें करने से घबराते नहीं हैं.
कबीर धुपेलिया 27 वर्ष के हैं और डरबन में एक बैंक में काम करते हैं. उनकी बड़ी बहन मिशा धुपेलिया उनसे 10 साल बड़ी हैं और एक स्थानीय रेडियो स्टेशन में एक कम्युनिकेशन एग्ज़ीक्यूटिव हैं.
ये दोनों कीर्ति मेनन के भाई सतीश की संतानें हैं. इन दोनों की कज़न सुनीता मेनन एक पत्रकार हैं. वो कीर्ति मेनन की एकलौती औलाद हैं.
चश्मे और हल्की दाढ़ी में कबीर एक बुद्धिजीवी की तरह नज़र आते हैं.
मिशा अपनी उम्र से काफ़ी छोटी लगती हैं लेकिन बातें समझदारी की करती हैं. सुनीता अपने काम को काफ़ी गंभीरता से लेती हैं.
वो खुद को भारतीय महसूस करते हैं या दक्षिण अफ़्रीकी?
इस सवाल पर कबीर एक झटके में कहते हैं, "हम साउथ अफ़्रीकी हैं."
मिशा और सुनीता के अनुसार वो साउथ अफ़्रीक़ी पहले हैं, भारतीय मूल के बाद में.
ये युवा बापू के दूसरे बेटे मणिलाल गांधी की नस्ल से हैं.
गांधी 1914 में दक्षिण अफ़्रीक़ा से भारत लौट गए थे. मणिलाल भी वापस लौटे लेकिन कुछ समय बाद गांधी ने उन्हें डरबन वापस भेज दिया.
गांधी ने 1904 में डरबन के निकट फ़ीनिक्स सेटलमेंट में एक आश्रम बनाया था जहाँ से वो "इंडियन ओपिनियन" नाम का एक अख़बार प्रकाशित करते थे.
मणिलाल 1920 में इसके संपादक बने और 1954 में अपनी मृत्यु तक इसी पद पर रहे.
कबीर कहते हैं, "मेरे विचार में इस बात से मैं काफ़ी प्रभावित हूँ कि किस तरह वो अपने मुद्दों पर शांतिपूर्वक डटे रहते थे. ये आज आपको देखने को नहीं मिलेगा. गांधी ने शांति के साथ अपनी बातें मनवाईं जिसके कारण उस समय कुछ लोग नाराज़ भी रहते होंगे."
गांधी की विरासत की अहमियत का उन्हें ख़ूब अंदाज़ा है लेकिन उनके अनुसार ये भारी विरासत कभी-कभी उनके लिए एक बोझ भी बन जाती है.
सुनीता कहती हैं, "गांधी जी को एक मनुष्य से बढ़ कर देखा जाता है. उनकी विरासत के स्तर के हिसाब से जीवन बिताने का हम पर काफ़ी दबाव होता है."
सुनीता मेनन बताती हैं, "सामाजिक न्याय मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है. और ये सोच गांधी परिवार में पिछली पांच पीढ़ी से चली आ रही है."
वे कहती हैं कि उनके कई दोस्तों को सालों तक नहीं पता चलता कि वो गांधी परिवार से हैं.
मिशा बताती हैं, "मैं जानबूझ कर लोगों को ये नहीं कहती रहती हूँ कि आप जानते हैं कि मैं कौन हूँ".
जब हमने पूछा कि जब उनके दोस्तों को पता चलता है कि उनका बैकग्राउंड किया है तो उनके दोस्तों की प्रतिक्रियाएं किया होती हैं?
इस सवाल के जवाब में सुनीता कहती हैं, "जब लोगों को हमारे बैकग्राउंड के बारे में पता चलता है तो वो कहते हैं कि हाँ अब समझ में आया कि आप सियासत के प्रति इतने उत्साहित क्यों हैं."
लेकिन इससे उनकी दोस्ती पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.
वो गांधी की शिक्षा को अपने जीवन में अपनाने की कोशिश करते हैं लेकिन वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि वो एक अलग दौर में अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं और उनके अनुसार ये ज़रूरी नहीं है कि गांधी की 20वीं शताब्दी की सभी सीख आज के युग में लागू हो.
ये युवा गांधी के अंधे भक्त नहीं हैं. गांधी की कई कमज़ोरियों से वो वाक़िफ़ हैं लेकिन वो ये भी कहते हैं कि उन्हें उनके दौर की पृष्ठभूमि में देखना चाहिए.
गांधी परिवार की इन संतानों को इस बात की भी जानकारी है कि भारत में गांधी के आलोचक भी बहुत हैं. मगर वो इससे दुखी नहीं हैं.
कबीर कहते हैं, "काफ़ी लोग ये समझते हैं कि अहिंसा को अपनाने के लिए आपको गांधीवादी होना पड़ेगा. अहिंसा के लिए आप गांधी से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन आप अगर उनके आलोचक हैं और अहिंसा के रास्ते पर चलना चाहते हैं तो आप गांधीवाद के ख़िलाफ़ नहीं है."
सुनीता कहती हैं कि गांधी की आलोचना उनके समय के हालत और माहौल के परिपेक्ष्य में करना अधिक उचित होगा.
सुनीता के अनुसार उनके व्यक्तित्व को कई व्यक्तियों ने प्रभावित किया है, गांधी उनमें से एक हैं.