Monday, October 8, 2018

क्यों आपको बहुत विनम्र नहीं होना चाहिए?

हर समाज और संस्कृति में ये शब्द विलेन माने जाते हैं. हम सब को बचपन से ही विनम्र होने की सीख दी जाती है.
अंग्रेज़ लेखिका जेन ऑस्टेन ने तो इस पर बाक़ायदा उपन्यास लिखा था-प्राइड ऐंड प्रेजुडिस. इसके ज़मींदार किरदार मिस्टर डार्सी को अपनी प्रेमिका एलिज़ाबेथ बेनेट का प्यार हासिल करने के लिए अपने ग़ुरूर की क़ुर्बानी देनी पड़ी थी.
मगर, वक़्त बदल रहा है. मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अभिमान करना उतनी भी बुरी बात नहीं जितनी सदियों से बताई जाती रही है. पिछले कुछ बरसों में हुए रिसर्च बताते हैं कि इंसान के विकास में अभिमान का अहम रोल रहा है. ये ख़ूबी इंसान में यूं ही नहीं आ गई. इसका मक़सद है.
तभी तो, आप पूरब से पश्चिम हो या बच्चों से बुज़ुर्ग तक- अभिमान की झलक देख पाते हैं.
ग़ुरूर के संकेत तो आप को पता ही हैं. सीधे अकड़ कर खड़े होना, बांहें फैला कर बातें करना, हमेशा सिर ऊंचा रखना.
ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक जेसिका ट्रेसी ने इस बारे में किताब लिखी है- 'प्राइड:द सीक्रेट ऑफ़ सक्सेस'. वो कहती हैं कि "अकड़ वाली इस भाव-भंगिमा को इंसान ने सदियों की विकास यात्रा से गुज़र कर हासिल किया है. ये यूं ही नहीं आई है."
जब हम अपनी किसी उपलब्धि पर गर्व करते हैं, तो इसके सामाजिक फ़ायदे भी होते हैं.
कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी की लेडा कॉस्माइड्स कहती हैं "जब इंसान शिकार कर के बसर करता था, तो गर्व करने का मक़सद ये संकेत देना होता था कि आप की बेहतरी सब के हित में है."
लेडा की रिसर्च में पता चला है कि हम तब ग़ुरूर महसूस करते हैं, जब हम कोई मुश्किल काम निपटाते हैं या फिर हमारे पास कोई एकदम अलहदा सी ख़ूबी होती है. यानी अगर आप किसी ख़ास हुनर को हासिल करने के लिए मशक़्क़त करते हैं, तो आपको अभिमान कर के ये संकेत देना होता है कि आप ने इसके लिए उनसे ज़्यादा मेहनत की है. इसका उन्हें सम्मान करना चाहिए.
कनाडा की मॉन्ट्रियल यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक डेनियल स्नाइसर कहते हैं कि, "ग़ुरूर के ज़रिए आप अपनी कामयाबी की नुमाइश करते हैं. वरना किसी को कैसे पता चलेगा कि आप की कामयाबी है क्या. मुझे आपकी अहमियत का एहसास इसी तरह से होता है."में इस पर एक बड़ी रिसर्च छपी थी. इसे लेडा कॉस्माइड्स और डेनियल स्नाइसर ने दूसरे मनोवैज्ञानिकों के साथ मिलकर किया था. इसमें अमरीका से लेकर जापान तक 16 देशों के लोगों पर तजुर्बे किए गए थे.
लोगों से पूछा गया था कि वो दूसरों की कौन-सी ख़ूबियां पसंद करते हैं और किन गुणों को वो अपने अंदर देखना चाहेंगे.
रिसर्च में पता चला कि जो लोग ग़ुरूर को अच्छा मानते थे, वो ये भी मानते थे कि इससे उन्हें दूसरों की तारीफ़ हासिल होगी.
अक्सर हम जिस बात पर अभिमान करते हैं, वो इस उम्मीद में करते हैं कि वो दूसरों की नज़र में अच्छा होगा. फिर वो कोई काम हो या हुनर हो.
अभिमान को अगर पैमानों पर कसें, तो हर काम से पहले हमारा ज़हन ये अटकल लगाता है कि उसकी दूसरे कितनी तारीफ़ करेंगे.
इस रिसर्च पर ये कह कर सवाल उठाए गए कि ये तो औद्योगिक और विकसित देशों का हिसाब-किताब है. जहां पर लोगों की मीडिया और संवाद के दूसरे संसाधनों तक ज़्यादा पहुंच होती है.
इसके बाद रिसर्चरों ने दक्षिण अमरीका, अफ्रीका और एशिया के 567 लोगों से यही सवाल पूछा कि वो दूसरों के किस गुण को पसंद करते हैं और कौन-सी ख़ूबियां वो अपने अंदर लाना चाहेंगे.
लोगों के जो जवाब मिले उसके संकेत साफ़ थे. वो चाहते थे कि वो देखने में मज़बूत हों, अच्छे क़िस्सागो हों, अपनी हिफ़ाज़त कर सकें. ऐसे गुणों की मांग भी ख़ूब दिखी और इनकी तारीफ़ भी हुई.
डेनियल स्नाइसर मानते हैं कि संकेत साफ़ हैं. अभिमान की हमारे समाज में ख़ास अहमियत है.
अमरीका की इलिनॉय यूनिवर्सिटी के जोई चेंग कहते हैं कि हमें ये तो हमेशा पता था कि ग़ुरूर से हमें कामयाबी के शिखर पर पहुंचने में मदद मिलती है. मगर ये मदद कितनी होती है, इसका पता नहीं था.
बड़ा सवाल ये है कि अगर हमारी तरक़्क़ी में अभिमान का इतना अहम रोल है तो इसके प्रति सोच इतनी नकारात्मक क्यों है?
लेडा कॉस्माइड और डेनियल स्नाइसर इसका जवाब देते हैं. वो कहते हैं कि "अपनी कामयाबी पर अभिमान करना तो ठीक, लेकिन कुछ लोग अहंकारी हो जाते हैं. ये ठीक नहीं है. जब आप अपनी कामयाबी को ज़्यादा समझते हैं. मगर दूसरों की नज़र में वो सफलता उतनी अहम नहीं होती. टकराव तभी शुरू होता है."
"आप कहते हैं कि मैंने फलां कामयाबी हासिल की. मेरा एहतराम करो. सामने वाला कहता है कि ठीक है कि तुमने वो काम किया. अच्छी बात है. मगर इस बात के लिए तुम्हें सलाम ठोकने का मेरा जी नहीं करता."
जेसिका ट्रेसी कहती हैं कि हमें ख़ुद पर गर्व करने और अहंकार करने में फ़र्क़ करना आना चाहिए. अपनी कामयाबी पर आप ख़ुश तो हों, मगर, दूसरे अगर उस सफ़लता को उस नज़रिए से नहीं देखते, तो आप उन पर दबाव न बनाएं. क्योंकि दिक़्क़त यहीं से शुरू होती है.
आत्ममुग्ध लोग अक्सर इन बारीक़ फ़र्क़ की सीमा पार कर जाते हैं. जो लोग अभिमान और अहंकार के इस फ़ासले को समझते हैं. वो बेहतर इंसान बन पाते हैं. उनके संबंध भी दूसरे लोगों से बेहतर होते हैं.
जोई चेंग और जेसिका ट्रेसी ने इस बारे में खिलाड़ियों पर रिसर्च की तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए.
पता चला कि जो खिलाड़ी आत्मविश्वास से भरपूर होते हैं, अपने हुनर पर अभिमान करते हैं, वो ज़्यादा कामयाब होते हैं. उनका सम्मान भी ज़्यादा होता है.
यानी अभिमान करने में कोई हर्ज़ नहीं. शर्त सिर्फ़ एक है. अपनी सफलता और अपने हुनर को ख़ुद से बढ़-चढ़कर न आंकें, न हांकें.
रेदुअन फ़ैद फ़्रांस के एक ऐसे अपराधी हैं जिन्हें एक नाक़ाम लूट की कोशिश में 25 साल की सज़ा मिली थी.
जब एक जुलाई को वो जेल से भागे तो फ़्रांस के लोग एक अपराधी के भागने का जश्न मनाते नज़र आए.
अभिनेत्री बिएट्रिस डेल ने तो अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर लिखा, "पूरा फ़्रांस आपके साथ है. मैं डांस करके घंटों तक इसका जश्न मनाऊंगी."रांस के लोगों में गैंगस्टर्स को लेकर ख़ासा रोमांच रहता है. ख़ासकर उन्हें लेकर जो जेल से भाग निकलते हैं.
जिन गैंगस्टर्स के पास इस तरह के कई क़िस्से हों और वो उन कहानियों पर अपनी क़िताब लिख दें तो फिर कहना ही क्या. वो टीवी सेलेब्रिटी बन जाते हैं.
रेदुअन फ़ैद की जिंदगी में ये सारे रोमांच हैं. उनकी ज़िंदगी में अतिश्योक्ति भरी घटनाएं भी हैं और बदलाव के क़िस्से भी. यही कारण हैं फ़्रांस के लोग उनके लिए भावनाएं रखते हैं.
ऐसा नहीं है कि फ़्रांस के लोग ऐसे अपराधियों के लिए भावनाएं रखते हैं जिन पर हिंसा के मामले कम हों. मसलन फ़ैद ने एक लूट की वारदात को अंजाम दिया था तो उसमें एक शख़्स बुरी तरह जल गया था.
साल 2010 के लूट के मामले में भी एक पुलिसवाले की मौत हो गई थी. हालांकि, ये मौत फ़ैद के हाथों नहीं बल्कि उन्हीं के गैंग के एक दूसरे शख़्स के हाथों हुई थी.
फ़ैद अकेले नहीं है. जैक्यूज़ मसरिन, टेनी ज़ाम्पा और फ़्रांस्वा ले बेल्गे भी लोगों के बीच काफ़ी मशहूर रहे. ये लोग ना सिर्फ़ बैंक लुटेरे रहे बल्कि क़ातिल भी रहे.
इस आकर्षण की जड़ें शायद फ़्रांस की क्रांति से शुरू होती हैं. इस क्रांति ने अमीरों की जेब किसी भी तरीक़े से ख़ाली करने वाले कामों को स्वीकार्यता दी थी.
रेदुअन फ़ैद ऐसे पहले गैंगस्टर नहीं हैं जिन्होंने ख़ुद की छवि रॉबिनहुड जैसी बनाई है.
फ़ैद 'ना कोई ज़ख़्मी, ना कोई घायल' जैसे वाक्य को अपना आधार सूत्र बताते थे. अपने संस्मरण में वह लिखते हैं, ''अगर कोई ज़ख़्मी नहीं होता है तो समझिए आप अपना काम सही तरीक़े से कर रहे हैं.''
फ़ैद ने उन मनोवैज्ञानिक बातों का भी ज़िक्र किया है जो उन्हें ऐसे कामों को अंजाम देने के लिए प्रेरित करती थीं. फ्रांस के लोगों को इस तरह से आत्मविश्लेषण करना पसंद है.
उन्होंने लिखा है, "आप एड्रिनलिन के लिए बेताब रहते हैं. आपके शरीर को इसकी ड्रग की तरह ज़रूरत होती है. आप ऐसे काम पैसे के लिए नहीं कर रहे होते."
मगर इस आकर्षण के पीछे एक आसान सी वजह है और फ़ैद भी इससे परिचित हैं- सिनेमा के प्रति दीवानगी.
फ्रांस में गैंगस्टर वाली फ़िल्में बनाने की परंपरा रही है. कई सारी फ़िल्में हैं जो गैंगस्टर्स वाले प्लॉट पर बनी हैं या फिर असली गैंगस्टर्स की ज़िंदगी पर आधारित हैं.
इन फ़िल्मों के हीरो हिंसक तो होते हैं मगर वे रोमांटिक भी होते हैं और कुछ ऐसे कारणों से अपराध की दुनिया में चले जाते हैं जिन पर उनका वश नहीं होता.
रेदुअन फ़ैद पर हॉलिवुड का ज़्यादा असर रहा था और यह असर बेहद अहमियत रखता था. साल 1995 में पहली वारदात के दौरान उन्होंने और उनके गैंग के सदस्यों ने पूर्व प्रधानमंत्री रेमंड बार के चेहरे वाले मास्क पहने हुए थे
फ़ैद ने हीट फ़िल्म डीवीडी पर 100 बार देखी थी और सीखा था कि हथियारबंद कैश वाली गाड़ी पर कैसे हमला किया जा सकता है.
ला मोंद अख़बार में उनकी साइकोलॉजिकल रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है, "डकैती ऐसे डाली गई मानो वो किसी फ़िल्म का असली सीन हो. वह अपने स्क्रीनप्ले के हिसाब से अभिनय कर रहे थे."
और फ्रांस के लोग तो वैसे भी अच्छी फ़िल्मों को पसंद करने के लिए जाने जाते हैं.

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