Wednesday, September 4, 2019

'मोदी सरकार की इस चूक से लगा अर्थव्यवस्था पर ब्रेक': नज़रिया

याद कीजिए जब चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री थे, तब खस्ता आर्थिक हालात में रिज़र्व बैंक में जमा सोना गिरवी रखा गया था.
तब ये सवाल उठा था कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह खोखली हो चुकी है. सवाल इसलिए उठा था क्योंकि चन्द्रशेखर फ़रवरी 1991 में देश का बजट तक नहीं रख पाए थे.
विश्व बैंक और आईएमएफ़ ने उस समय हर सुविधा-मदद खींच ली थी. 67 टन सोना (40 टन बैंक ऑफ़ इंग्लैड में और 20 टन यूनियन बैंक ऑफ़ स्विट्ज़रलैंड में ) गिरवी रखकर 6 करोड़ डॉलर लिए गए.
इसी के एवज में आईएमएफ़ से 22 लाख डॉलर का कर्ज़ मिला. तब महंगाई दर 8.4 फ़ीसदी पर आ गई थी.
12 नंवबर 1991 को जारी की गई वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट, 'इंडिया- स्ट्रक्चल एडजस्टमेंट क्रेडिट रिपोर्ट' के मुताबिक इसी के बाद भारत में सत्ता परिवर्तन के बाद पीवी नरसिम्हा राव ने बतौर प्रधानमंत्री आईएमएफ-वर्ल्ड बैंक की नीतियों को अपनाने पर हरी झंडी दी.
राव की सत्ता के वक्त वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उदारवादी इकॉनमी के ज़रिये तीन क़दम उठाए- ग्लोबलाइज़ेशन, बाज़ार अर्थव्यवस्था और पूंजी का वितरण. और इन्हीं तीन तरीकों के आसरे तब विश्व बैंक और आईएमएफ़ से बड़े लोन लिए गए.
विश्व बैंक की तमाम शर्तें मान ली गईं और पूंजी में ढांचागत परिवर्तन की शुरुआत हुई. विदेशी निवेश भारत में आने लगा. लाइसेंसी राज को ख़त्म करने के लिए उद्योगों को रियायत दी जाने लगी.
औद्योगिक उदारवाद तेज़ी से फैला. सार्वजनिक उपक्रम के डिसइन्वेस्टमेंट की सोच शुरू हुई और देखते ही देखते भारतीय इकॉनमी पटरी पर दौड़ने लगी.
आर्थिक सुधार के इस पहले फ़ेज़ को बाद की सरकार ने भी जारी रखा. भारत में 1991 से शुरू हुए आर्थिक विकास की रफ़्तार को परखें तो 1991 से 2010 तक विकास दर दुनिया के अन्य देशों से एक तरफ़ कहीं बेहतर रही, वहीं आर्थिक विकास के इस ढांचे ने भारत के उस तबके में भी जान फूंक दी जो टैक्स के दायरे में नहीं था.
या कहें जो क्षेत्र मॉनीटाइज़ेशन से दूर थे या फिर इनफ़ॉर्मल सेक्टर थे, वहां भी लोगों की बाज़ार से खरीदने की ताक़त बढ़ती रही. ख़ासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में जुड़ा मज़दूर तबका, जो पूरी तरह असंगठित क्षेत्र का था, उसे मिल रहे काम और मज़दूरी ने जीडीपी ग्रोथ को बढ़ाने में मदद की.
ध्यान दें तो तीन स्तर पर भारत का आर्थिक विकास हुआ. भारतीय कंपनियों की शुमारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में होने लगी. बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में पैसा लगाना शुरू किया. मध्यम शहरी तबके की आय के इज़ाफे में तेज़ी आई.
आंकड़ों के लिहाज़ से देश में 10 करोड़ के मध्यम वर्ग का दायरा 15 करोड़ तक जा पहुंचा और संगठित या अंसगठित क्षेत्र में काम ना मिलने के तनाव से मुक्ति मिली.
इसका प्रभाव बैंको पर भी पड़ा. 2003-04 की रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक बचत खातों में 17 फ़ीसदी की बढ़ोतरी वाजपेयी काल में दर्ज की गई. और सच यही है कि राव-मनमोहन की जोड़ी के उदारवादी अर्थव्यवस्था के चेहरे को ही वाजपेयी सरकार ने अपनाया. उसे 'आर्थिक सुधार का ट्रैक-टू' नाम दिया गया.
और याद कीजिए, तब संघ परिवार ने चमक-दमक की इकॉनमी का विरोध किया था. बीएमएस-स्वदेशी जागरण मंच ने देसी अर्थव्यवस्था की वकालत की. वाजपेयी सरकार से दो-दो हाथ किए. तब के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा को कुर्सी छोड़नी पड़ी लेकिन वाजपेयी सरकार ने आर्थिक विकास की इस छलांग में ही शाइनिंग इंडिया के राग गाए.
हालांकि वाजपेयी चुनाव हार गए लेकिन थ्योरी यही निकली कि संघ ने साथ नहीं दिया. और वाजपेयी के दौर के आर्थिक सुधार को वामपंथियों के सहयोग से बनी मनमोहन सरकार ने जारी रखा.
फिर अटल बिहारी वाजपेयी के दौर (1998-2004) को याद कीजिए. स्वर्ण चतुष्कोणीय सड़क योजना ने शहर से जुड़े ग्रामीण भारत की तस्वीर को बदलना शुरू किया. नेशनल हाइवे का निर्माण जिस तरह शहर के बाहरी इलाकों में देश भर में होना शुरू हुआ, उसने सड़क किनारे ज़मीन का मॉनिटाइज़ेशन जिस रफ़्तार से किया, उसका सीधा लाभ उस बाज़ार और उस उद्योग को मिला, जो प्रॉडक्ट व उत्पादन से जुड़ा था.
कहीं ज़मीन से मिले मुआवज़े से कमाई हुई तो कहीं मुख्यधारा की इकॉनमी के क़रीब होने के लाभ ने देश के क़रीब तीन हज़ार गांवों की तस्वीर बदल दी.
योजना आयोग की 2001-02 की रिपोर्ट के मुताबिक इस पूरी प्रक्रिया में अंसगठित क्षेत्र से जुड़े 40 करोड़ लोग भी उपभोक्ता में तब्दील हो गए. किसान-मज़दूर भी खेती ना होने के मौसम में या खेती बर्बाद होने पर गांवों से शहरों में मज़दूरी के लिए निकले और कमाई से उनकी ख़रीद क्षमता भी बढ़ी. देशी कंपनियों के उत्पाद की मांग बिस्कुट-ब्रेड से लेकर साबुन और दोपहिया वाहन तक जा पहुंची.
हालांकि, वामपंथी नेता ए.बी. वर्धन ने डिसइन्वेस्टमेंट का खुला विरोध किया. और सबसे बडी बात तो ये है कि आर्थिक सुधार में 2010 तक कोई रुकावट आई नहीं और इनफॉर्मल सेक्टर को सरकार ने छुआ भी नहीं.
2010 में जारी एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक बाज़ार से कमाई के बाद असगंठित क्षेत्र से जुड़े 40 करोड़ से ज़्यादा लोगों की कमाई न तो किसी टैक्स के दायरे में थी और ना ही वह रकम किसी को कोई धंधा करने से रोकती या धंधा करने पर सरकार की निगरानी में आती.
यानी फ़ॉर्मल सेक्टर के समानांतर एक इनफ़ॉर्मल इकॉनमी थी जो सरकार की इकॉनमी के समानांतर थी. और उसी के दायरे में छोटे और मंझोले उद्योग पनपे. रियल एस्टेट भी चमका.

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